मैं चरणॊं से लिपट रहा था, सिर से मुझे लगाया क्यों?
पूजा का साहित्य पुजारी पर इस भाँति चढ़ाया क्यों?
गंधहीन बन-कुसुम-स्तुति में अलि का आज गान कैसा?
मन्दिर-पथ पर बिछी धूलि की पूजा का विधान कैसा?
कहूँ, या कि रो दूँ कहते, मैं कैसे समय बिताता हूँ;
बाँध रही मस्ती को अपना बंधन दुदृढ़ बनाता हूँ।
ऎसी आग मिली उमंग की ख़ुद ही चिता जलाता हूँ
किसी तरह छींटों से उभरा ज्वाला मुखी दबाता हूँ।
द्वार कंठ का बन्द, गूँजता हृदय प्रलय-हुँकारों से,
पड़ा भाग्य का भार काटता हूँ कदली तलवारों से।
विस्मय है, निर्बन्ध कीर को यह बन्धन कैसे भाया?
चारा था चुगना तोते को, भाग्य यहाँ तक ले आया।
औ’ बंधन भी मिला लौह का, सोने की कड़ियाँ न मिलीं;
बन्दी-गृह में अन बहलाता, ऎसी भी घड़ियाँ न मिलीं।
आँखों को है शौक़ प्रलय का, कैसे उसे बुलाऊँ मैं?
घेर रहे सन्तरी, बताओ अब कैसे चिल्लाऊँ मैं?
फिर-फिर कसता हूँ कड़ियाँ, फिर-फिर होती कसमस जारी;
फिर-फिर राख डालता हूँ, फिर-फिर हँसती है चिनगारी।
टूट नहीं सकता ज्वाला से, जलतों का अनुराग सखे!
पिला-पिला कर ख़ून हृदय का पाल रहा हूँ आग सखे!
भावों के आवेग प्रबल
मचा रहे उर में हलचल।
कहते, उर के बाँध तोड़
स्वर-स्त्रोत्तों में बह-बह अनजान,
तृण, तरु, लता, अनिल, जल-थल को
छा लेंगे हम बनकर गान।
पर, हूँ विवश, गान से कैसे
जग को हाय ! जगाऊँ मैं,
इस तमिस्त्र युग-बीच ज्योति की
कौन रागिनी गाऊँ मैं?
बाट जोहता हूँ लाचार
आओ स्वरसम्राट ! उदार
पल भर को मेरे प्राणों में
ओ विराट् गायक ! आओ,
इस वंशी पर रसमय स्वर में
युग-युग के गायन गाओ।
वे गायन, जिनके न आज तक
गाकर सिरा सका जल-थल,
जिनकी तान-तान पर आकुल
सिहर-सिहर उठता उडु-दल।
आज सरित का कल-कल, छल-छल,
निर्झर का अविरल झर-झर,
पावस की बूँदों की रिम-झिम
पीले पत्तों का मर्मर,
जलधि-साँस, पक्षी के कलरव,
अनिल-सनन, अलि का गुन-गुन
मेरी वंशी के छिद्रों में
भर दो ये मधु-स्वर चुन चुन।
दो आदेश, फूँक दूँ श्रृंगी,
उठें प्रभाती-राग महान,
तीनों काल ध्वनित हो स्वर में
जागें सुप्त भुवन के प्राण।
गत विभूति, भावी की आशा,
ले युगधर्म पुकार उठे,
सिंहों की घन-अंध गुहा में
जागृति की हुंकार उठे।
जिनका लुटा सुहाग, हृदय में
उनके दारुण हूक उठे,
चीखूँ यों कि याद कर ऋतुपति
की कोयल रो कूक उठे।
प्रियदर्शन इतिहास कंठ में
आज ध्वनित हो काव्य बने,
वर्तमान की चित्रपटी पर
भूतकाल सम्भाव्य बने।
जहाँ-जहाँ घन-तिमिर हृदय में
भर दो वहाँ विभा प्यारी,
दुर्बल प्राणों की नस-नस में
देव ! फूँक दो चिनगारी।
ऐसा दो वरदान, कला को
कुछ भी रहे अजेय नहीं,
रजकण से ले पारिजात तक
कोई रूप अगेय नहीं।
प्रथम खिली जो मघुर ज्योति
कविता बन तमसा-कूलों में
जो हँसती आ रही युगों से
नभ-दीपों, वनफूलों में;
सूर-सूर तुलसी-शशि जिसकी
विभा यहाँ फैलाते हैं,
जिसके बुझे कणों को पा कवि
अब खद्योत कहाते हैं;
उसकी विभा प्रदीप्त करे
मेरे उर का कोना-कोना
छू दे यदि लेखनी, धूल भी
चमक उठे बनकर सोना॥
२३ दिसम्बर १९३३ ई. -दिनकर
नाचो, हे नाचो, नटवर !
चन्द्रचूड़ ! त्रिनयन ! गंगाधर ! आदि-प्रलय ! अवढर ! शंकर!
नाचो, हे नाचो, नटवर !
आदि लास, अविगत, अनादि स्वन,
अमर नृत्य - गति, ताल चिरन्तन,
अंगभंग, हुंकृति-झंकृति कर थिरको हे विश्वम्भर !
नाचो, हे नाचो, नटवर !
सुन शृंगी-निर्घोष पुरातन,
उठे सृष्टि-हृद में नव-स्पन्दन,
विस्फारित लख काल-नेत्र फिर
काँपे त्रस्त अतनु मन-ही-मन ।
स्वर-खरभर संसार, ध्वनित हो नगपति का कैलास-शिखर ।
नाचो, हे नाचो, नटवर !
नचे तीव्रगति भूमि कील पर,
अट्टहास कर उठें धराधर,
उपटे अनल, फटे ज्वालामुख,
गरजे उथल-पुथल कर सागर ।
गिरे दुर्ग जड़ता का, ऐसा प्रलय बुला दो प्रलयंकर !
नाचो, हे नाचो, नटवर !
घहरें प्रलय-पयोद गगन में,
अन्ध-धूम्र हो व्याप्त भुवन में,
बरसे आग, बहे झंझानिल,
मचे त्राहि जग के आँगन में,
फटे अतल पाताल, धँसे जग, उछल-उछल कूदें भूधर।
नाचो, हे नाचो, नटवर !
प्रभु ! तब पावन नील गगन-तल,
विदलित अमित निरीह-निबल-दल,
मिटे राष्ट्र, उजड़े दरिद्र-जन
आह ! सभ्यता आज कर रही
असहायों का शोणित-शोषण।
पूछो, साक्ष्य भरेंगे निश्चय, नभ के ग्रह-नक्षत्र-निकर !
नाचो, हे नाचो, नटवर !
नाचो, अग्निखंड भर स्वर में,
फूंक-फूंक ज्वाला अम्बर में,
अनिल-कोष, द्रुम-दल, जल-थल में,
अभय विश्व के उर-अन्तर में,
गिरे विभव का दर्प चूर्ण हो,
लगे आग इस आडम्बर में,
वैभव के उच्चाभिमान में,
अहंकार के उच्च शिखर में,
स्वामिन्, अन्धड़-आग बुला दो,
जले पाप जग का क्षण-भर में।
डिम-डिम डमरु बजा निज कर में
नाचो, नयन तृतीय तरेरे!
ओर-छोर तक सृष्टि भस्म हो
चिता-भूमि बन जाय अरेरे !
रच दो फिर से इसे विधाता, तुम शिव, सत्य और सुन्दर !
नाचो, हे नाचो, नटवर !
दिसम्बर १९३२
बरसों बाद मिले तुम हमको आओ जरा बिचारें,
आज क्या है कि देख कौम को गम है।
कौम-कौम का शोर मचा है, किन्तु कहो असल में
कौन मर्द है जिसे कौम की सच्ची लगी लगन है?
भूखे, अपढ़, नग्न बच्चे क्या नहीं तुम्हारे घर में?
कहता धनी कुबेर किन्तु क्या आती तुम्हें शरम है?
आग लगे उस धन में जो दुखियों के काम न आए,
लाख लानत जिनका, फटता नही मरम है।
दुह-दुह कर जाति गाय की निजतन धन तुम पा लो
दो बूँद आँसू न उनको यह भी कोई धरम है?
देख रही है राह कौम अपने वैभव वालों की
मगर फिकर क्या, उन्हें सोच तो अपन ही हरदम है?
हँसते हैं सब लोग जिन्हें गैरत हो वे सरमायें
यह महफ़िल कहने वालों को बड़ा भारी विभ्रम है।
सेवा व्रत शूल का पथ है गद्दी नहीं कुसुम की!
घर बैठो चुपचाप नहीं जो इस पर चलने का दम है।
देश में जिधर भी जाता हूँ,
उधर ही एक आह्वान सुनता हूँ
“जड़ता को तोड़ने के लिए
भूकम्प लाओ ।
घुप्प अँधेरे में फिर
अपनी मशाल जलाओ ।
पूरे पहाड़ हथेली पर उठाकर
पवनकुमार के समान तरजो ।
कोई तूफ़ान उठाने को
कवि, गरजो, गरजो, गरजो !”
सोचता हूँ, मैं कब गरजा था ?
जिसे लोग मेरा गर्जन समझते हैं,
वह असल में गाँधी का था,
उस गाँधी का था, जिस ने हमें जन्म दिया था ।
तब भी हम ने गाँधी के
तूफ़ान को ही देखा,
गाँधी को नहीं ।
वे तूफ़ान और गर्जन के
पीछे बसते थे ।
सच तो यह है
कि अपनी लीला में
तूफ़ान और गर्जन को
शामिल होते देख
वे हँसते थे ।
तूफ़ान मोटी नहीं,
महीन आवाज़ से उठता है ।
वह आवाज़
जो मोम के दीप के समान
एकान्त में जलती है,
और बाज नहीं,
कबूतर के चाल से चलती है ।
गाँधी तूफ़ान के पिता
और बाजों के भी बाज थे ।
क्योंकि वे नीरवताकी आवाज थे।
यह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नहीं है
थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नहीं है
चिन्गारी बन गयी लहू की बून्द गिरी जो पग से
चमक रहे पीछे मुड देखो चरण-चिनह जगमग से
शुरू हुई आराध्य भूमि यह क्लांत नहीं रे राही;
और नहीं तो पाँव लगे हैं क्यों पड़ने डगमग से
बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नहीं है
थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नहीं है
अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का,
सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश निर्मम का।
एक खेप है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ;
वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का।
आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है;
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।
दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा,
लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा।
जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलाएगी ही,
अम्बर पर घन बन छाएगा ही उच्छ्वास तुम्हारा।
और अधिक ले जाँच, देवता इतना क्रूर नहीं है।
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।
जला अस्थियाँ बारी-बारी
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम, आज उनकी जय बोल।
जो अगणित लघु दीप हमारे
तूफानों में एक किनारे,
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन
माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल
कलम, आज उनकी जय बोल।
पीकर जिनकी लाल शिखाएँ
उगल रही सौ लपट दिशाएं,
जिनके सिंहनाद से सहमी
धरती रही अभी तक डोल
कलम, आज उनकी जय बोल।
अंधा चकाचौंध का मारा
क्या जाने इतिहास बेचारा,
साखी हैं उनकी महिमा के
सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल
कलम, आज उनकी जय बोल।
क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे
कहो, कहाँ, कब हारा?
क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
तुम हुये विनत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही।
अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।
क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो।
तीन दिवस तक पंथ मांगते
रघुपति सिन्धु किनारे,
बैठे पढ़ते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे-प्यारे।
उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नहीं सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से।
सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि
करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता ग्रहण की
बँधा मूढ़ बन्धन में।
सच पूछो, तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की।
सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।
गीत, अगीत, कौन सुंदर है?
गाकर गीत विरह की तटिनी
वेगवती बहती जाती है,
दिल हलका कर लेने को
उपलों से कुछ कहती जाती है।
तट पर एक गुलाब सोचता,
“देते स्वर यदि मुझे विधाता,
अपने पतझर के सपनों का
मैं भी जग को गीत सुनाता।”
गा-गाकर बह रही निर्झरी,
पाटल मूक खड़ा तट पर है।
गीत, अगीत, कौन सुंदर है?
बैठा शुक उस घनी डाल पर
जो खोंते पर छाया देती।
पंख फुला नीचे खोंते में
शुकी बैठ अंडे है सेती।
गाता शुक जब किरण वसंती
छूती अंग पर्ण से छनकर।
किंतु, शुकी के गीत उमड़कर
रह जाते स्नेह में सनकर।
गूँज रहा शुक का स्वर वन में,
फूला मग्न शुकी का पर है।
गीत, अगीत, कौन सुंदर है?
दो प्रेमी हैं यहाँ, एक जब
बड़े साँझ आल्हा गाता है,
पहला स्वर उसकी राधा को
घर से यहाँ खींच लाता है।
चोरी-चोरी खड़ी नीम की
छाया में छिपकर सुनती है,
‘हुई न क्यों मैं कड़ी गीत की
बिधना’, यों मन में गुनती है।
वह गाता, पर किसी वेग से
फूल रहा इसका अंतर है।
गीत, अगीत, कौन सुन्दर है?
पर्वत पर, शायद, वृक्ष न कोई शेष बचा,
धरती पर, शायद, शेष बची है नहीं घास;
उड़ गया भाप बनकर सरिताओं का पानी,
बाकी न सितारे बचे चाँद के आस-पास ।
क्या कहा कि मैं घनघोर निराशावादी हूँ?
तब तुम्हीं टटोलो हृदय देश का, और कहो,
लोगों के दिल में कहीं अश्रु क्या बाकी है?
बोलो, बोलो, विस्मय में यों मत मौन रहो ।
रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है!
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।
जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते;
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।
आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का;
आज उठता और कल फिर फूट जाता है;
किन्तु, फिर भी धन्य; ठहरा आदमी ही तो?
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।
मैं न बोला, किन्तु, मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से, चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?
मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाती हूँ,
और उस पर नींव रखती हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाती हूँ।
मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है,
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।
स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे,
“रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।”
वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो
चट्टानों की छाती से दूध निकालो
है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो
पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो
चढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पियो रे
योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे!
जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है
चिनगी बन फूलों का पराग जलता है
सौन्दर्य बोध बन नयी आग जलता है
ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है
अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे
गरजे कृशानु तब कंचन शुद्ध करो रे!
जिनकी बाँहें बलमयी ललाट अरुण है
भामिनी वही तरुणी नर वही तरुण है
है वही प्रेम जिसकी तरंग उच्छल है
वारुणी धार में मिश्रित जहाँ गरल है
उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है
तलवार प्रेम से और तेज होती है!
छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाये
मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाये
दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है
मरता है जो एक ही बार मरता है
तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे
जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे!
स्वातंत्र्य जाति की लगन व्यक्ति की धुन है
बाहरी वस्तु यह नहीं भीतरी गुण है
वीरत्व छोड़ पर का मत चरण गहो रे
जो पड़े आन खुद ही सब आग सहो रे!
जब कभी अहम पर नियति चोट देती है
कुछ चीज़ अहम से बड़ी जन्म लेती है
नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है
वह उसे और दुर्धुर्ष बना जाती है
चोटें खाकर बिफरो, कुछ अधिक तनो रे
धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे!
उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है
सुख नहीं धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है
विज्ञान ज्ञान बल नहीं, न तो चिंतन है
जीवन का अंतिम ध्येय स्वयं जीवन है
सबसे स्वतंत्र रस जो भी अनघ पियेगा
पूरा जीवन केवल वह वीर जियेगा!
सत्य का जिसके हृदय में प्यार हो,
एक पथ, बलि के लिए तैयार हो ।
फूँक दे सोचे बिना संसार को,
तोड़ दे मँझधार जा पतवार को ।
कुछ नई पैदा रगों में जाँ करे,
कुछ अजब पैदा नया तूफाँ करे।
हाँ, नईं दुनिया गढ़े अपने लिए,
रैन-दिन जागे मधुर सपने लिए ।
बे-सरो-सामाँ रहे, कुछ गम नहीं,
कुछ नहीं जिसको, उसे कुछ कम नहीं ।
प्रेम का सौदा बड़ा अनमोल रे !
निःस्व हो, यह मोह-बन्धन खोल रे !
मिल गया तो प्राण में रस घोल रे !
पी चुका तो मूक हो, मत बोल रे !
प्रेम का भी क्या मनोरम देश है !
जी उठा, जिसकी जलन निःशेष है ।
जल गए जो-जो लिपट अंगार से,
चाँद बन वे ही उगे फिर क्षार से ।
प्रेम की दुनिया बड़ी ऊँची बसी,
चढ़ सका आकाश पर विरला यशी।
हाँ, शिरिष के तन्तु का सोपान है,
भार का पन्थी ! तुम्हें कुछ ज्ञान है ?
है तुम्हें पाथेय का कुछ ध्यान भी ?
साथ जलने का लिया सामान भी ?
बिन मिटे, जल-जल बिना हलका बने,
एक पद रखना कठिन है सामने ।
प्रेम का उन्माद जिन-जिन को चढ़ा,
मिट गए उतना, नशा जितना बढ़ा ।
मर-मिटो, यह प्रेम का शृंगार है।
बेखुदी इस देश में त्योहार है ।
खोजते -ही-खोजते जो खो गया,
चाह थी जिसकी, वही खुद हो गया।
जानती अन्तर्जलन क्या कर नहीं ?
दाह से आराध्य भी सुन्दर नहीं ।
‘प्रेम की जय’ बोल पग-पग पर मिटो,
भय नहीं, आराध्य के मग पर मिटो ।
हाँ, मजा तब है कि हिम रह-रह गले,
वेदना हर गाँठ पर धीरे जले।
एक दिन धधको नहीं, तिल-तिल जलो,
नित्य कुछ मिटते हुए बढ़ते चलो ।
पूर्णता पर आ चुका जब नाश हो,
जान लो, आराध्य के तुम पास हो।
आग से मालिन्य जब धुल जायगा,
एक दिन परदा स्वयं खुल जायगा।
आह! अब भी तो न जग को ज्ञान है,
प्रेम को समझे हुए आसान है ।
फूल जो खिलता प्रल्य की गोद में,
ढूँढ़ते फिरते उसे हम मोद में ।
बिन बिंधे कलियाँ हुई हिय-हार क्या?
कर सका कोई सुखी हो प्यार क्या?
प्रेम-रस पीकर जिया जाता नहीं ।
प्यार भी जीकर किया जाता कहीं?
मिल सके निज को मिटा जो राख में,
वीर ऐसा एक कोई लाख में।
भेंट में जीवन नहीं तो क्या दिया ?
प्यार दिल से ही किया तो क्या किया ?
चाहिए उर-साथ जीवन-दान भी,
प्रेम की टीका सरल बलिदान ही।
१९३५
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
साकार, दिव्य, गौरव विराट्,
पौरूष के पुन्जीभूत ज्वाल!
मेरी जननी के हिम-किरीट!
मेरे भारत के दिव्य भाल!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
युग-युग अजेय, निर्बन्ध, मुक्त,
युग-युग गर्वोन्नत, नित महान,
निस्सीम व्योम में तान रहा
युग से किस महिमा का वितान?
कैसी अखंड यह चिर-समाधि?
यतिवर! कैसा यह अमर ध्यान?
तू महाशून्य में खोज रहा
किस जटिल समस्या का निदान?
उलझन का कैसा विषम जाल?
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
ओ, मौन, तपस्या-लीन यती!
पल भर को तो कर दृगुन्मेष!
रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल
है तड़प रहा पद पर स्वदेश।
सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र,
गंगा, यमुना की अमिय-धार
जिस पुण्यभूमि की ओर बही
तेरी विगलित करुणा उदार,
जिसके द्वारों पर खड़ा क्रान्त
सीमापति! तू ने की पुकार,
'पद-दलित इसे करना पीछे
पहले ले मेरा सिर उतार।'
उस पुण्यभूमि पर आज तपी!
रे, आन पड़ा संकट कराल,
व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे
डस रहे चतुर्दिक विविध व्याल।
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
कितनी मणियाँ लुट गईं? मिटा
कितना मेरा वैभव अशेष!
तू ध्यान-मग्न ही रहा, इधर
वीरान हुआ प्यारा स्वदेश।
वैशाली के भग्नावशेष से
पूछ लिच्छवी-शान कहाँ?
ओ री उदास गण्डकी! बता
विद्यापति कवि के गान कहाँ?
तू तरुण देश से पूछ अरे,
गूँजा कैसा यह ध्वंस-राग?
अम्बुधि-अन्तस्तल-बीच छिपी
यह सुलग रही है कौन आग?
प्राची के प्रांगण-बीच देख,
जल रहा स्वर्ण-युग-अग्निज्वाल,
तू सिंहनाद कर जाग तपी!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ,
जाने दे उनको स्वर्ग धीर,
पर, फिर हमें गाण्डीव-गदा,
लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।
कह दे शंकर से, आज करें
वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार।
सारे भारत में गूँज उठे,
'हर-हर-बम' का फिर महोच्चार।
ले अंगडाई हिल उठे धरा
कर निज विराट स्वर में निनाद
तू शैलीराट हुँकार भरे
फट जाए कुहा, भागे प्रमाद
तू मौन त्याग, कर सिंहनाद
रे तपी आज तप का न काल
नवयुग-शंखध्वनि जगा रही
तू जाग, जाग, मेरे विशाल
रचनाकाल १९३३
आज न उडु के नील-कुंज में स्वप्न खोजने जाऊँगी,
आज चमेली में न चंद्र-किरणों से चित्र बनाऊँगी।
अधरों में मुस्कान, न लाली बन कपोल में छाउँगी,
कवि ! किस्मत पर भी न तुम्हारी आँसू बहाऊँगी ।
नालन्दा-वैशाली में तुम रुला चुके सौ बार,
धूसर भुवन-स्वर्ग _ग्रामों_में कर पाई न विहार।
आज यह राज-वाटिका छोड़, चलो कवि ! वनफूलों की ओर।
चलो, जहाँ निर्जन कानन में वन्य कुसुम मुसकाते हैं,
मलयानिल भूलता, भूलकर जिधर नहीं अलि जाते हैं।
कितने दीप बुझे झाड़ी-झुरमुट में ज्योति पसार ?
चले शून्य में सुरभि छोड़कर कितने कुसुम-कुमार ?
कब्र पर मैं कवि ! रोऊँगी, जुगनू-आरती सँजाऊँगी ।
विद्युत छोड़ दीप साजूँगी, महल छोड़ तृण-कुटी-प्रवेश,
तुम गाँवों के बनो भिखारी, मैं भिखारिणी का लूँ वेश।
स्वर्णा चला अहा ! खेतों में उतरी संध्या श्याम परी,
रोमन्थन करती गायें आ रहीं रौंदती घास हरी।
घर-घर से उठ रहा धुआँ, जलते चूल्हे बारी-बारी,
चौपालों में कृषक बैठ गाते "कहँ अटके बनवारी?"
पनघट से आ रही पीतवासना युवती सुकुमार,
किसी भाँति ढोती गागर-यौवन का दुर्वह भार।
बनूँगी मैं कवि ! इसकी माँग, कलश, काजल, सिन्दूर, सुहाग।
वन-तुलसी की गन्ध लिए हलकी पुरवैया आती है,
मन्दिर की घंटा-ध्वनि युग-युग का सन्देश सुनाती है।
टिमटिम दीपक के प्रकाश में पढ़ते निज पोथी शिशुगण,
परदेशी की प्रिया बैठ गाती यह विरह-गीत उन्मन,
"भैया ! लिख दे एक कलम खत मों बालम के जोग,
चारों कोने खेम-कुसल माँझे ठाँ मोर वियोग ।"
दूतिका मैं बन जाऊँगी, सखी ! सुधि उन्हें सुनाऊँगी।
पहन शुक्र का कर्णफूल है दिशा अभी भी मतवाली,
रहते रात रमणियाँ आईं ले-ले फूलों की डाली।
स्वर्ग-स्त्रोत, करुणा की धारा, भारत-माँ का पुण्य तरल,
भक्ति-अश्रुधारा-सी निर्मल गंगा बहती है अविरल।
लहर-लहर पर लहराते हैं मधुर प्रभाती-गान,
भुवन स्वर्ग बन रहा, उड़े जाते ऊपर को प्राण,
पुजारिन की बन कंठ-हिलोर, भिगो दूँगी अब-जग के छोर।
कवि ! असाढ़ की इस रिमझिम में धनखेतों में जाने दो,
कृषक-सुंदरी के स्वर में अटपटे गीत कुछ गाने दो ।
दुखियों के केवल उत्सव में इस दम पर्व मनाने दो,
रोऊँगी खलिहानों में, खेतों में तो हर्षाने दो ।
मैं बच्चों के संग जरा खेलूँगी दूब-बिछौने पर ,
मचलूँगी मैं जरा इन्द्रधनु के रंगीन खिलौने पर ।
तितली के पीछे दौड़ूंगी, नाचूँगी दे-दे ताली,
मैं मकई की सुरभी बनूँगी, पके आम-फल की लाली ।
वेणु-कुंज में जुगनू बन मैं इधर-उधर मुसकाऊँगी ,
हरसिंगार की कलियाँ बनकर वधुओं पर झड़ जाऊँगी।
सूखी रोटी खायेगा जब कृषक खेत में धर कर हल,
तब दूँगी मैं तृप्ति उसे बनकर लोटे का गंगाजल ।
उसके तन का दिव्य स्वेदकण बनकर गिरती जाऊँगी,
और खेत में उन्हीं कणों-से मैं मोती उपजाऊँगी ।
शस्य-श्यामता निरख करेगा कृषक अधिक जब अभिलाषा,
तब मैं उसके हृदय-स्त्रोत में उमड़ूंगी बनकर आशा ।
अर्धनग्न दम्पति के गृह में मैं झोंका बन आऊँगी,
लज्जित हो न अतिथि-सम्मुख वे, दीपक तुरंत बुझाऊँगी।
ऋण-शोधन के लिए दूध-घी बेच-बेच धन जोड़ेंगे,
बूँद-बूँद बेचेंगे, अपने लिए नहीं कुछ छोड़ेंगे ।
शिशु मचलेंगे दूध देख, जननी उनको बहलायेंगी,
मैं फाडूंगी हृदय, लाज से आँख नहीं रो पायेगी ।
इतने पर भी धन-पतियों की उनपर होगी मार,
तब मैं बरसूँगी बन बेबस के आँसू सुकुमार ।
फटेगा भू का हृदय कठोर । चलो कवि ! वनफूलों की ओर ।
सिमट विश्व-वेदना निखिल बज उठी करुण अन्तर में,
देव ! हुंकरित हुआ कठिन युगधर्म तुम्हारे स्वर में ।
काँटों पर कलियों, गैरिक पर किया मुकुट का त्याग
किस सुलग्न में जगा प्रभो ! यौवन का तीव्र विराग ?
चले ममता का बंधन तोड़
विश्व की महामुक्ति की ओर ।
तप की आग, त्याग की ज्वाला से प्रबोध-संधान किया ,
विष पी स्वयं, अमृत जीवन का तृषित विश्व को दान किया ।
वैशाली की धूल चरण चूमने ललक ललचाती है ,
स्मृति-पूजन में तप-कानन की लता पुष्प बरसाती है ।
वट के नीचे खड़ी खोजती लिए सुजाता खीर तुम्हें ,
बोधिवृक्ष-तल बुला रहे कलरव में कोकिल-कीर तुम्हें ।
शस्त्र-भार से विकल खोजती रह-रह धरा अधीर तुम्हें ,
प्रभो ! पुकार रही व्याकुल मानवता की जंजीर तुम्हें ।
आह ! सभ्यता के प्राङ्गण में आज गरल-वर्षण कैसा !
धृणा सिखा निर्वाण दिलानेवाला यह दर्शन कैसा !
स्मृतियों का अंधेर ! शास्त्र का दम्भ ! तर्क का छल कैसा !
दीन दुखी असहाय जनों पर अत्याचार प्रबल कैसा !
आज दीनता को प्रभु की पूजा का भी अधिकार नहीं ,
देव ! बना था क्या दुखियों के लिए निठुर संसार नहीं ?
धन-पिशाच की विजय, धर्म की पावन ज्योति अदृश्य हुई ,
दौड़ो बोधिसत्त्व ! भारत में मानवता अस्पृश्य हुई ।
धूप-दीप, आरती, कुसुम ले भक्त प्रेम-वश आते हैं ,
मन्दिर का पट बन्द देख ‘जय’ कह निराश फिर जाते हैं ।
शबरी के जूठे बेरों से आज राम को प्रेम नहीं ,
मेवा छोड़ शाक खाने का याद नाथ को नेम नहीं ।
पर, गुलाब-जल में गरीब के अश्रु राम क्या पायेंगे ?
बिना नहाये इस जल में क्या नारायण कहलायेंगे ?
मनुज-मेघ के पोषक दानव आज निपट निर्द्वन्द्व हुए ;
कैसे बचे दीन ? प्रभु भी धनियों के गृह में बन्द हुए ।
अनाचार की तीव्र आँच में अपमानित अकुलाते हैं ,
जागो बोधिसत्त्व ! भारत के हरिजन तुम्हें बुलाते हैं ।
जागो विप्लव के वाक् ! दम्भियों के इन अत्याचारों से ,
जागो, हे जागो, तप-निधान ! दलितों के हाहाकारों से ।
जागो, गांधी पर किये गए नरपशु-पतितों के वारों से , *
जागो, मैत्री-निर्घोष ! आज व्यापक युगधर्म-पुकारों से ।
जागो, गौतम ! जागो, महान !
जागो, अतीत के क्रांति-गान !
जागो, जगती के धर्म-तत्त्व !
जागो, हे ! जागो बोधिसत्त्व !
१९३४
मैं पतझड़ की कोयल उदास,
बिखरे वैभव की रानी हूँ
मैं हरी-भरी हिम-शैल-तटी
की विस्मृत स्वप्न-कहानी हूँ।
अपनी माँ की मैं वाम भृकुटि,
गरिमा की हूँ धूमिल छाया,
मैं विकल सांध्य रागिनी करुण,
मैं मुरझी सुषमा की माया।
मैं क्षीणप्रभा, मैं हत-आभा,
सम्प्रति, भिखारिणी मतवाली,
खँडहर में खोज रही अपने
उजड़े सुहाग की हूँ लाली।
मैं जनक कपिल की पुण्य-जननि,
मेरे पुत्रों का महा ज्ञान ।
मेरी सीता ने दिया विश्व
की रमणी को आदर्श-दान।
मैं वैशाली के आसपास
बैठी नित खँडहर में अजान,
सुनती हूँ साश्रु नयन अपने
लिच्छवि-वीरों के कीर्ति-गान।
नीरव निशि में गंडकी विमल
कर देती मेरे विकल प्राण,
मैं खड़ी तीर पर सुनती हूँ
विद्यापति-कवि के मधुर गान।
नीलम-घन गरज-गरज बरसें
रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम अथोर,
लहरें गाती हैं मधु-विहाग,
‘हे, हे सखि ! हमर दुखक न ओर ।’
चांदनी-बीच धन-खेतों में
हरियाली बन लहराती हूँ,
आती कुछ सुधि, पगली दौड़ो
मैं कपिलवस्तु को जाती हूँ।
बिखरी लट, आँसू छलक रहे,
मैं फिरती हूँ मारी-मारी ।
कण-कण में खोज रही अपनी
खोई अनन्त निधियाँ सारी।
मैं उजड़े उपवन की मालिन,
उठती मेरे हिय विषम हूख,
कोकिला नहीं, इस कुंज-बीच
रह-रह अतीत-सुधि रही कूक।
मैं पतझड़ की कोयल उदास,
बिखरे वैभव की रानी हूँ,
मैं हरी-भरी हिमशैल-तटी
की विस्मृत स्वप्न-कहानी हूँ।
रचनाकाल: १९३४
संध्या की इस मलिन सेज पर गंगे! किस विषाद के संग,
सिसक-सिसक कर सुला रही तू अपने मन की मृदुल उमंग?
उमड़ रही आकुल अन्तर में कैसी यह वेदना अथाह?
किस पीड़ा के गहन भार से निश्चल-सा पड़ गया प्रवाह?
मानस के इस मौन मुकुल में सजनि! कौन-सी व्यथा अपार
बनकर गन्ध अनिल में मिल जाने को खोज रही लघु द्वार?
चल अतीत की रंगभूमि में स्मृति-पंखों पर चढ़ अनजान,
विकल-चित सुनती तू अपने चन्द्रगुप्त का क्या जय-गान?
घूम रहा पलकों के भीतर स्वप्नों-सा गत विभव विराट?
आता है क्या याद मगध का सुरसरि! वह अशोक सम्राट?
सन्यासिनी-समान विजन में कर-कर गत विभूति का ध्यान,
व्यथित कंठ से गाती हो क्या गुप्त-वंश का गरिमा-गान?
गूंज रहे तेरे इस तट पर गंगे! गौतम के उपदेश,
ध्वनित हो रहे इन लहरों में देवि! अहिंसा के सन्देश।
कुहुक-कुहुक मृदु गीत वही गाती कोयल डाली-डाली,
वही स्वर्ण-संदेश नित्य बन आता ऊषा की लाली।
तुझे याद है चढ़े पदों पर कितने जय-सुमनों के हार?
कितनी बार समुद्रगुप्त ने धोई है तुझमें तलवार?
तेरे तीरों पर दिग्विजयी नृप के कितने उड़े निशान?
कितने चक्रवर्तियों ने हैं किये कूल पर अवभृत्थ-स्नान?
विजयी चन्द्रगुप्त के पद पर सैल्यूकस की वह मनुहार,
तुझे याद है देवि! मगध का वह विराट उज्ज्वल शृंगार?
जगती पर छाया करती थी कभी हमारी भुजा विशाल,
बार-बार झुकते थे पद पर ग्रीक-यवन के उन्नत भाल।
उस अतीत गौरव की गाथा छिपी इन्हीं उपकूलों में,
कीर्ति-सुरभि वह गमक रही अब भी तेरे वन-फूलों में।
नियति-नटी ने खेल-कूद में किया नष्ट सारा शृंगार,
खँडहर की धूलों में सोया अपना स्वर्णोदय साकार।
तू ने सुख-सुहाग देखा है, उदय और फिर अस्त, सखी!
देख, आज निज युवराजों को भिक्षाटन में व्यस्त सखी!
एक-एक कर गिरे मुकुट, विकसित वन भस्मीभूत हुआ,
तेरे सम्मुख महासिन्धु सूखा, सैकत उद्भूत हुआ।
धधक उठा तेरे मरघट में जिस दिन सोने का संसार,
एक-एक कर लगा धहकने मगध-सुन्दरी का शृंगार,
जिस दिन जली चिता गौरव की, जय-भेरी जब मूक हुई,
जमकर पत्थर हुई न क्यों, यदि टूट नहीं दो-टूक हुई?
छिपे-छिपे बज रही मंद्र ध्वनि मिट्टी में नक्कारों की,
गूँज रही झन-झन धूलों में मौर्यों की तलवारों की।
दायें पार्श्व पड़ा सोता मिट्टी में मगध शक्तिशाली,
वीर लिच्छवी की विधवा बायें रोती है वैशाली।
तू निज मानस-ग्रंथ खोल दोनों की गरिमा गाती है,
वीचि-दृर्गों से हेर-हेर सिर धुन-धुन कर रह जाती है।
देवि! दुखद है वर्त्तमान की यह असीम पीड़ा सहना।
नहीं सुखद संस्मृति में भी उज्ज्वल अतीत की रत रहना।
अस्तु, आज गोधूलि-लग्न में गंगे! मन्द-मन्द बहना;
गाँवों, नगरों के समीप चल कलकल स्वर से यह कहना,
"खंडहर में सोई लक्ष्मी का फिर कब रूप सजाओगे?
भग्न देव-मन्दिर में कब पूजा का शंख बजाओगे?"
१९३१
मृत्यु-भीत शत-लक्ष मानवों की करुणार्द्र पुकार!
ढह पड़ना था तुम्हें अरी ! ओ पत्थर की दीवार!
निष्फल लौट रही थी जब मरनेवालों की आह,
दे देनी थी तुम्हें अभागिनि, एक मौज को राह ।
एक मनुज, चालीस कोटि मनुजों का जो है प्यारा,
एक मनुज, भारत-रानी की आँखों का ध्रुवतारा।
एक मनुज, जिसके इंगित पर कोटि लोग चलते हैं,
आगे-पीछे नहीं देखते, खुशी-खुशी जलते हैं ।
एक मनुज, जिसका शरीर ही बन्दी है पाशों में,
लेकिन, जो जी रहा मुक्त हो जनता की सांसों में।
जिसका ज्वलित विचार देश की छाती में बलता है,
और दीप्त आदर्श पवन में भी निश्चल जलता है।
कोटि प्राण जिस यशःकाय ऋषि की महिमा गाते हैं,
इतिहासों में स्वयं चरण के चिह्न बने जाते हैं।
वह मनुष्य, जो आज तुम्हारा बन्दी केवल तन से,
लेकिन, व्याप रहा है जो सारे भारत को मन से।
मुट्ठी भर हड्डियाँ निगलकर पापिनि, इतराती हो?
मुक्त विराट पुरुष की माया समझ नहीं पाती हो ?
तुम्हें ज्ञात, उर-उर में किसकी पीड़ा बोल रही है?
धर्म-शिखा किसकी प्रदीप्त गृह-गृह में डोल रही है?
किसके लिए असंख्य लोचनों से झरने है जारी?
किसके लिए दबी आहों से छिटक रही चिनगारी?
धुँधुआती भट्ठियाँ एक दिन फूटेंगी, फूटेंगी ;
ये जड़ पत्थर की दीवारें टूटेंगी, टूटेंगी।
जंजीरों से बड़ा जगत में बना न कोई गहना,
जय हो उस बलपुंज सिंह की, जिसने इनको पहना।
आँखों पर पहरा बिठला कर हँसें न किरिचोंवाले,
फटने ही वाले हैं युग के बादल काले-काले।
मिली न जिनको राह, वेग वे विद्युत बन आते हैं,
बहे नहीं जो अश्रु, वही अंगारे बन जाते हैं।
मानवेन्द्र राजेन्द्र हमारा अहंकार है, बल है,
तपःपूत आलोक, देश माता का खड्ग प्रबल है।
जिस दिन होगी खड़ी तान कर भृकुटी भारत-रानी
खड्ग उगल देना होगा ओ पिशाचिनी दीवानी !
घड़ी मुक्ति की नहीं टलेगी कभी किसी के टाले,
शाप दे गये तुम्हे, किन्तु, मिथिला के मरनेवाले ।
१९४५
उत्तर बिहार में फैली हुई महामारी के समय पूज्य राजेन्द्र बाबू की रिहाई के लिए उठाए गए आन्दोलन की विफलता पर रचित।
(बोरस्टल जेल के शहीद यतीन्द्रनाथ दास की मृत्यु पर)
निर्मम नाता तोड़ जगत का अमरपुरी की ओर चले,
बन्धन-मुक्ति न हुई, जननि की गोद मधुरतम छोड़ चले।
जलता नन्दन-वन पुकारता, मधुप! कहाँ मुँह मोड़ चले?
बिलख रही यशुदा, माधव! क्यों मुरली मंजु मरोड़ चले?
उबल रहे सब सखा, नाश की उद्धत एक हिलोर चले;
पछताते हैं वधिक, पाप का घड़ा हमारा फोड़ चले।
माँ रोती, बहनें कराहतीं, घर-घर व्याकुलता जागी,
उपल-सरीखे पिघल-पिघल तुम किधर चले मेरे बागी?
रचनाकाल १९२९
रच फूलों के गीत मनोहर.
चित्रित कर लहरों के कम्पन,
कविते ! तेरी विभव-पुरी में
स्वर्गिक स्वप्न बना कवि-जीवन।
छाया सत्य चित्र बन उतरी,
मिला शून्य को रूप सनातन,
कवि-मानस का स्वप्न भूमि पर
बन आया सुरतरु-मधु-कानन।
भावुक मन था, रोक न पाया,
सज आये पलकों में सावन,
नालन्दा-वैशाली के
ढूहों पर, बरसे पुतली के घन।
दिल्ली को गौरव-समाधि पर
आँखों ने आँसू बरसाये,
सिकता में सोये अतीत के
ज्योति-वीर स्मृति में उग आये।
बार-बार रोती तावी की
लहरों से निज कंठ मिलाकर,
देवि ! तुझे, सच, रुला चुका हूँ
सूने में आँसू बरसा कर।
मिथिला में पाया न कहीं, तब
ढूँढ़ा बोधि-वृक्ष के नीचे,
गौतम का पाया न पता,
गंगा की लहरों ने दृग मीचे।
मैं निज प्रियदर्शन अतीत का
खोज रहा सब ओर नमूना,
सच है या मेरे दृग का भ्रम?
लगता विश्व मुझे यह सूना।
छीन-छीन जल-थल की थाती
संस्कृति ने निज रूप सजाया,
विस्मय है, तो भी न शान्ति का
दर्शन एक पलक को पाया।
जीवन का यति-साम्य नहीं क्यों
फूट सका जब तक तारों से
तृप्ति न क्यों जगती में आई
अब तक भी आविष्कारों से?
जो मंगल-उपकरण कहाते,
वे मनुजों के पाप हुए क्यों?
विस्मय है, विज्ञान बिचारे
के वर ही अभिशाप हुए क्यों?
घरनी चीख कराह रही है
दुर्वह शस्त्रों के भारों से,
सभ्य जगत को तृप्ति नहीं
अब भी युगव्यापी संहारों से।
गूँज रहीं संस्कृति-मंडप में
भीषण फणियों की फुफकारें,
गढ़ते ही भाई जाते हैं
भाई के वध-हित तलवारें।
शुभ्र वसन वाणिज्य-न्याय का
आज रुधिर से लाल हुआ है,
किरिच-नोक पर अवलंबित
व्यापार, जगत बेहाल हुआ है।
सिर धुन-धुन सभ्यता-सुंदरी
रोती है बेबस निज रथ में,
"हाय ! दनुज किस ओर मुझे ले
खींच रहे शोणित के पथ में?"
दिक्-दिक् में शस्त्रों की झनझन,
धन-पिशाच का भैरव-नर्त्तन,
दिशा-दिशा में कलुष-नीति,
हत्या, तृष्णा, पातक-आवर्त्तन!
दलित हुए निर्बल सबलों से
मिटे राष्ट्र, उजड़े दरिद्र जन,
आह! सभ्यता आज कर रही
असहायों का शोणित-शोषण।
क्रांति-धात्रि कविते! जागे, उठ,
आडम्बर में आग लगा दे,
पतन, पाप, पाखंड जलें,
जग में ऐसी ज्वाला सुलगा दे।
विद्युत की इस चकाचौंध में
देख, दीप की लौ रोती है।
अरी, हृदय को थाम, महल के
लिए झोंपड़ी बलि होती है।
देख, कलेजा फाड़ कृषक
दे रहे हृदय शोणित की धारें;
बनती ही उनपर जाती हैं
वैभव की ऊंची दीवारें।
धन-पिशाच के कृषक-मेध में
नाच रही पशुता मतवाली,
आगन्तुक पीते जाते हैं
दीनों के शोणित की प्याली।
उठ भूषण की भाव-रंगिणी!
लेनिन के दिल की चिनगारी!
युग-मर्दित यौवन की ज्वाला !
जाग-जाग, री क्रान्ति-कुमारी!
लाखों क्रौंच कराह रहे हैं,
जाग, आदि कवि की कल्याणी?
फूट-फूट तू कवि-कंठों से
बन व्यापक निज युग की वाणी।
बरस ज्योति बन गहन तिमिर में,
फूट मूक की बनकर भाषा,
चमक अंध की प्रखर दृष्टि बन,
उमड़ गरीबी की बन आशा।
गूँज, शान्ति की सुकद साँस-सी
कलुष-पूर्ण युग-कोलाहल में,
बरस, सुधामय कनक-वृष्टि-सी
ताप-तप्त जग के मरुथल में।
खींच मधुर स्वर्गीय गीत से
जगती को जड़ता से ऊपर,
सुख की सरस कल्पना-सी तू
छा जाये कण-कण में भू पर।
क्या होगा अनुचर न वाष्प हो,
पड़े न विद्युत-दीप जलाना;
मैं न अहित मानूँगा, चाहे
मुझे न नभ के पन्थ चलाना।
तमसा के अति भव्य पुलिन पर,
चित्रकूट के छाया-तरु तर,
कहीं तपोवन के कुंजों में
देना पर्णकुटी का ही घर।
जहाँ तृणों में तू हँसती हो,
बहती हो सरि में इठलाकर,
पर्व मनाती हो तरु-तरु पर
तू विहंग-स्वर में गा-गाकर।
कन्द, मूल, नीवार भोगकर,
सुलभ इंगुदी-तैल जलाकर,
जन-समाज सन्तुष्ट रहे
हिल-मिल आपस में प्रेम बढ़ाकर।
धर्म-भिन्नता हो न, सभी जन
शैल-तटी में हिल-मिल जायें;
ऊषा के स्वर्णिम प्रकाश में
भावुक भक्ति-मुग्ध-मन गायें,
"हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे
भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्,
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेर्माम्
कस्मै देवाय हविषा विधे म?"
१९३१
गा रही कविता युगों से मुग्ध हो,
मधुर गीतों का न पर, अवसान है।
चाँदनी की शेष क्यों होगी सुधा,
फूल की रुकती न जब मुस्कान है?
चन्द्रिका किस रूपसी की है हँसी?
दूब यह किसकी अनन्त दुकूल है?
किस परी के प्रेम की मधु कल्पना
व्योम में नक्षत्र, वन में फूल है?
नत-नयन कर में कुसुम-जयमाल ले,
भाल में कौमार्य की बेंदी दिये,
क्षितिज पर आकर खड़ी होती उषा
नित्य किस सौभाग्यशाली के लिए?
धान की पी चन्द्रधौत हरीतिमा
आज है उन्मादिनी कविता-परी,
दौड़ती तितली बनी वह फूल पर,
लोटती भू पर जहाँ दूर्वा हरी ।
१९३४
संसार पूजता जिन्हें तिलक,
रोली, फूलों के हारों से ,
मैं उन्हें पूजता आया हूँ
बापू ! अब तक अंगारों से
अंगार,विभूषण यह उनका
विद्युत पीकर जो आते हैं
ऊँघती शिखाओं की लौ में
चेतना नई भर जाते हैं .
उनका किरीट जो भंग हुआ
करते प्रचंड हुंकारों से
रोशनी छिटकती है जग में
जिनके शोणित के धारों से .
झेलते वह्नि के वारों को
जो तेजस्वी बन वह्नि प्रखर
सहते हीं नहीं दिया करते
विष का प्रचंड विष से उत्तर .
अंगार हार उनका, जिनकी
सुन हाँक समय रुक जाता है
आदेश जिधर, का देते हैं
इतिहास उधर झुक जाता है
अंगार हार उनका की मृत्यु ही
जिनकी आग उगलती है
सदियों तक जिनकी सही
हवा के वक्षस्थल पर जलती है .
पर तू इन सबसे परे ; देख
तुझको अंगार लजाते हैं,
मेरे उद्वेलित-जलित गीत
सामने नहीं हों पाते हैं .
तू कालोदधि का महास्तम्भ,आत्मा के नभ का तुंग केतु .
बापू ! तू मर्त्य,अमर्त्य ,स्वर्ग,पृथ्वी,भू, नभ का महा सेतु .
तेरा विराट यह रूप कल्पना पट पर नहीं समाता है .
जितना कुछ कहूँ मगर, कहने को शेष बहुत रह जाता है .
लज्जित मेरे अंगार; तिलक माला भी यदि ले आऊँ मैं.
किस भांति उठूँ इतना ऊपर? मस्तक कैसे छू पाँऊं मैं .
ग्रीवा तक हाथ न जा सकते, उँगलियाँ न छू सकती ललाट .
वामन की पूजा किस प्रकार, पहुँचे तुम तक मानव,विराट .
'जय हो’, खोलो अजिर-द्वार
मेरे अतीत ओ अभिमानी!
बाहर खड़ी लिये नीराजन
कब से भावों की रानी!
बहुत बार भग्नावशेष पर
अक्षत-फूल बिखेर चुकी;
खँडहर में आरती जलाकर
रो--रो तुमको टेर चुकी।
वर्तमान का आज निमंत्रण,
देह धरो, आगे आओ;
ग्रहण करो आकार देवता!
यह पूजा-प्रसाद पाओ।
शिला नहीं, चैतन्य मूर्ति पर
तिलक लगाने मैं आई;
वर्तमान की समर-दूतिका,
तुम्हें जगाने मैं आई।
कह दो निज अस्तमित विभा से,
तम का हृदय विदीर्ण करे;
होकर उदित पुनः वसुधा पर
स्वर्ण-मरीचि प्रकीर्ण करे।
अंकित है इतिहास पत्थरों
पर जिनके अभियानों का
चरण - चरण पर चिह्न यहाँ
मिलता जिनके बलिदानों का;
गुंजित जिनके विजय-नाद से
हवा आज भी बोल रही;
जिनके पदाघात से कम्पित
धरा अभी तक डोल रही।
कह दो उनसे जगा, कि उनकी
ध्वजा धूल में सोती है;
सिंहासन है शून्य, सिद्धि
उनकी विधवा--सी रोती है।
रथ है रिक्त, करच्युत धनु है,
छिन्न मुकुट शोभाशाली,
खँडहर में क्या धरा, पड़े,
करते वे जिसकी रखवाली?
जीवित है इतिहास किसी--विधि
वीर मगध बलशाली का,
केवल नाम शेष है उनके
नालन्दा, वैशाली का।
हिमगह्वर में किसी सिंह का
आज मन्द्र हुंकार नहीं,
सीमा पर बजनेवाले घौंसों
की अब धुंधकार नहीं!
बुझी शौर्य की शिखा, हाय,
वह गौरव - ज्योति मलीन हुई,
कह दो उनसे जगा, कि उनकी
वसुधा वीर - विहीन हुई।
बुझा धर्म का दीप, भुवन में
छाया तिमिर अहंकारी;
हमीं नहीं खोजते, खोजती
उसे आज दुनिया सारी।
वह प्रदीप, जिसकी लौ रण में
पत्थर को पिघलाती है;
लाल कीच के कमल, विजय, को
जो पद से ठुकराती है।
आज कठिन नरमेघ! सभ्यता
ने थे क्या विषधर पाले!
लाल कीच ही नहीं, रुधिर के
दौड़ रहे हैं नद - नाले।
अब भी कभी लहू में डूबी
विजय विहँसती आयेगी,
किस अशोक की आँख किन्तु,
रो कर उसको नहलायेगी?
कहाँ अर्द्ध - नारीश वीर वे
अनल और मधु के मिश्रण?
जिनमें नर का तेज प्रबल था,
भीतर था नारी का मन?
एक नयन संजीवन जिनका,
एक नयन था हालाहल,
जितना कठिन खड्ग था कर में,
उतना ही अन्तर कोमल।
स्थूल देह की विजय आज,
है जग का सफल बहिर्जीवन;
क्षीण किन्तु, आलोक प्राण का,
क्षीण किन्तु, मानव का मन।
अर्चा सकल बुद्धि ने पायी,
हृदय मनुज का भूखा है;
बढ़ी सभ्यता बहुत, किन्तु,
अन्तःसर अब तक सूखा है।
यंत्र - रचित नर के पुतले का
बढ़ा ज्ञान दिन - दिन दूना;
एक फूल के बिना किन्तु, है--
हृदय - देश उसका सूना।
संहारों में अचल खड़ा है
धीर, वीर मानव ज्ञानी,
सूखा अन्तःसलिल, आँख में
आये क्या उसके पानी?
सब कुछ मिला नये मानव को,
एक न मिला हृदय कातर;
जिसे तोड़ दे अनायास ही
करुणा की हलकी ठोकर।
’जय हो’, यंत्र पुरुष को दर्पण
एक फूटनेवाला दो;
हृदयहीन के लिए ठेस पर
हृदय टूटनेवाला दो।
दो विषाद, निर्लज्ज मनुज यह
ग्लानिमग्न होना सीखे;
विजय - मुकुट रुधिराक्त पहनकर
हँसे नहीं, रोना सीखे।
दावानल - सा जला रहा
नर को अपना ही बुद्धि - अनल;
भरो हृदय का शून्य सरोवर,
दो शीतल करुणा का जल।
जग में भीषण अन्धकार है,
जगो, तिमिर - नाशक, जागो,
जगो मंत्र - द्रष्टा, जगती के
गौरव, गुरु, शासक, जागो।
गरिमा, ज्ञान, तेज, तप, कितने
सम्बल हाय, गये खोये;
साक्षी है इतिहास, वीर, तुम
कितना बल लेकर सोये।
’जय हो’ खोलो द्वार, अमृत दो,
हे जग के पहले दानी!
यह कोलाहल शमित करेगी
किसी बुद्ध की ही बानी।
रचनाकाल: १९४१
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